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भारत का जल संसाधन

Posted on: फ़रवरी 22, 2009

क्या आप सोचते हैं कि जो कुछ वर्तमान में है, ऐसा ही रहेगा या भविष्य कुछ पक्षों में अलग होने जा रहा है? कुछ निश्चितता के साथ यह कहा जा सकता है कि समाज जनांकिकीय परिवर्तन, जनसंख्या का भौगोलिक स्थानांतरण, प्रौद्योगिक उन्नति, पर्यावरणीय निम्नीकरण, और जल अभाव का साक्षी होगा। जल अभाव संभवत: इसकी बढ़ती हुई माँग, अति उपयोग तथा  प्रदूषण के कारण घटती आपूर्ति के आधार पर सबसे बड़ी चुनौती है। जल एक चक्रीय संसाधन है जो पृथ्वी पर प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। पृथ्वी का लगभग 71 प्रतिशत धरातल पानी से  आच्छादित है परंतु अलवणीय जल कुल जल का केवल लगभग 3 प्रतिशत ही है। वास्तव में अलवणीय जल का एक बहुत छोटा भाग ही मानव उपयोग के लिए उपलब्ध है। अलवणीय जल की उपलब्धिता स्थान और समय के अनुसार भिन्न-भिन्न है। इस दुर्लभ संसाधन के आवंटन और नियंत्रण पर तनाव और लड़ाई झगड़े, संप्रदायों, प्रदेशों और राज्यों के बीच विवाद का विषय बन गए हैं। विकास को सुनिश्चित करने के लिए जल का मूल्यांकन, कार्यक्षम उपयोग और संरक्षण आवश्यक हो गए हैं। इस आलेख में हम भारत में जल संसाधनों, इसके भौगोलिक वितरण, क्षेत्रीय उपयोग और इसके संरक्षण और प्रबंधन की विधियों पर चर्चा करेंगे।

भारत का जल संसाधन

भारत में विश्व के धरातलीय क्षेत्र का लगभग 2.45 प्रतिशत, जल संसाधनों का 4 प्रतिशत, जनसंख्या का लगभग 16 प्रतिशत भाग पाया जाता है। देश में एक वर्ष में वर्षण से प्राप्त कुल जल की मात्रा लगभग 4,000 घन कि-मी- है। धरातलीय जल और पुन: पूर्तियोग भौम जल से 1,869 घन कि-मी- जल उपलब्ध है। इसमें से केवल 60 प्रतिशत जल का लाभदायक उपयोग किया जा सकता है। इस प्रकार देश में कुल उपयोगी जल संसाधन 1,122 घन कि-मी- है।

धरातलीय जल संसाधन

धरातलीय जल के चार मुख्य स्रोत हैं — नदियाँ, झीलें, तलैया और तालाब। देश में कुल नदियों तथा उन सहायक नदियों, जिनकी लंबाई 1-6 कि-मी- से अधिक है, को मिलाकर 10,360 नदियाँ हैं। भारत में सभी नदी बेसिनों में औसत वार्षिक प्रवाह 1,869 घन कि-मी- होने का अनुमान किया गया है। फिर भी स्थलाकॄतिक, जलीय और अन्य दबावों के कारण प्राप्त धरातलीय जल का केवल लगभग 690 घन किमी- ;32÷ जल का ही उपयोग किया जा सकता है। नदी में जल प्रवाह इसके जल ग्रहण क्षेत्र के आकार अथवा नदी बेसिन और इस जल ग्रहण क्षेत्र में हुई वर्षा पर निर्भर करता है।

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आप जानते  हैं कि भारत में वर्षा में अत्यधिक स्थानिक विभिन्नता पाई जाती है और वर्षा मुख्य रूप से मानसूनी मौसम संकेद्रित है। भारत में कुछ नदियाँ, जैसे– गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु के जल ग्रहण क्षेत्र बहुत बड़े हैं। गंगा, ब्रह्मपुत्र और बराक नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में वर्षा अपेक्षाकॄत अधिक होती है। ये नदियाँ यद्यपि देश के कुल क्षेत्र के लगभग एक-तिहाई भाग पर पाई जाती हैं जिनमें कुल धरातलीय जल संसाधनों का 60 प्रतिशत जल पाया जाता है। दक्षिणी भारतीय नदियों, जैसे– गोदावरी, कॄष्णा और कावेरी में वार्षिक जल प्रवाह का अधिकतर भाग काम में लाया जाता है लेकिन ऐसा ब्रह्मपुत्र और गंगा बेसिनों में अभी भी संभव नहीं हो सका है।

भौम जल संसाधन

देश में, कुल पुन: पूर्तियोग्य भौम जल संसाधन लगभग 432 घन कि-मी- है। तालिका 6-1 दर्शाती है कि कुल पुन: पूर्तियोग्य भौम जल संसाधन का लगभग 46 प्रतिशत गंगा और ब्रह्मपुत्र बेसिनों में पाया जाता है। उत्तर-पश्चिमी प्रदेश और दक्षिणी भारत के कुछ भागों के नदी बेसिनों में भौम जल उपयोग अपेक्षाकॄत अधिक है। देश में राज्यवार संभावित भौम जल के उपयोग को चित्र  में दर्शाया गया है। पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और तमिलनाडु राज्यों में भौम जल का उपयोग बहुत अधिक है। परंतु कुछ राज्य जैसे छत्तीसगढ़, उड़ीसा, केरल आदि अपने भौम जल क्षमता का बहुत कम उपयोग करते हैं। गुजरात, उत्तर प्रदेश, बिहार, त्रिपुरा और महाराष्ट्र अपने भौम जल संसाधनों का मध्यम दर से उपयोग कर रहे हैं। यदि वर्तमान प्रवृत्त जारी रहती है तो जल के माँग की आपूर्ति करने की आवश्यकता होगी। ऐसी स्थिति विकास के लिए हानिकारक होगी और सामाजिक उथल-पुथल और विघटन का कारण हो सकती है।

लैगून और पश्च जल

भारत की समुद्र तट रेखा विशाल है और कुछ राज्यों में समुद्र तट बहुत दंतुरित (indented) है। इसी कारण बहुत-सी लैगून और झीलें बन गई हैं। केरल, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल में इन लैगूनों और झीलों में बड़े धरातलीय जल संसाधन हैं। यद्यपि, सामान्यत: इन जलाशयों में खारा जल है, इसका उपयोग मछली पालन और चावल की कुछ निश्चित किस्मों, नारियल आदि की सिंचाई में किया जाता है।

जल की माँग और उपयोग

पारंपरिक रूप से भारत एक कॄषि प्रधान अर्थव्यवस्था है और इसकी जनसंख्या का लगभग दो-तिहाई भाग कॄषि पर निर्भर है। इसीलिए, पंचवर्षीय योजनाओं में, कॄषि उत्पादन को बढ़ाने के  लिए सिंचाई के विकास को एक अति उच्च प्राथमिकता प्रदान की गई है और बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजनाएँ जैसे– भाखड़ा नांगल, हीराकुड, दामोदर घाटी, नागार्जुन सागर, इंदिरा गांधी नहर परियोजना आदि शुरू की गई हैं। वास्तव में, भारत की वर्तमान में जल की माँग, सिंचाई की आवश्यकताओं के लिए अधिक है। धरातलीय और भौम जल का सबसे अधिक उपयोग कॄषि में होता है। इसमें धरातलीय जल का 89 प्रतिशत और भौम जल का 92 प्रतिशत जल उपयोग किया जाता है। जबकि औद्योगिक सेक्टर में, सतह जल का केवल 2 प्रतिशत और भौम जल का 5 प्रतिशत भाग ही उपयोग में लाया जाता है। घरेलू सेक्टर में धरातलीय जल का उपयोग भौम जल की तुलना में अधिक  है। कुल जल उपयोग में कॄषि सेक्टर का भाग दूसरे सेक्टरों से अधिक है। फिर भी, भविष्य में विकास के साथ-साथ देश में औद्योगिक और घरेलू सेक्टरों में जल का उपयोग बढ़ने की संभावना है।

सिंचाई के लिए जल की माँग

कॄषि में, जल का उपयोग मुख्य रूप से सिंचाई के लिए होता है। देश में वर्षा के स्थानिक-सामयिक परिवर्तिता के कारण सिंचाई की आवश्यकता होती है। देश के अधिकांश भाग वर्षाविहीन और सूखाग्रस्त हैं। उत्तर-पश्चिमी भारत और दक्कन का पठार इसके अंतर्गत आते हैं। देश के अधिकांश भागों में शीत और ग्रीष्म ऋतुओं में न्यूनाधिक शुष्कता पाई जाती है इसलिए शुष्क ऋतुओं में बिना सिंचाई के खेती करना कठिन होता है। पर्याप्त मात्रा में वर्षा वाले क्षेत्र जैसे पश्चिम बंगाल और बिहार में भी मानसून के मौसम में अवर्षा अथवा इसकी असपफलता सूखा जैसी स्थिति उत्पन्न कर देती है जो कॄषि के लिए हानिकारक होती है। कुछ फसलों के लिए जल की कमी सिंचाई को आवश्यक बनाती है। उदाहरण के लिए चावल, गन्ना, जूट आदि के लिए अत्यधिक जल की आवश्यकता होती है जो केवल सिंचाई द्वारा संभव है। सिंचाई की व्यवस्था बहुफसलीकरण को संभव बनाती है। ऐसा पाया गया है कि सिंचित भूमि की कॄषि उत्पादकता असिंचित भूमि की अपेक्षा ज्यादा होती है। दूसरे, फसलों की अधिक उपज देने वाली किस्मों के लिए आर्द्रता आपूर्ति नियमित रूप से आवश्यक है जो केवल विकसित सिंचाई तंत्र से ही संभव होती है। वास्तव में ऐसा इसलिए है कि देश में कॄषि विकास की हरित क्रांति की रणनीति पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अधिक सपफल हुई है।

पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में निवल बोए गए क्षेत्र का 85 प्रतिशत भाग सिंचाई के अंतर्गत है। इन राज्यों में गेहूँ और चावल मुख्य रूप से सिंचाई की सहायता से पैदा किए जाते हैं। निवल सिंचित क्षेत्र का 76-1 प्रतिशत पंजाब में और 51-3 प्रतिशत हरियाणा में, कुओं और नलकूपों द्वारा सिंचित है। इससे यह ज्ञात होता है कि ये राज्य अपने संभावित भौम जल के एक बड़े भाग का उपयोग करते हैं जिससे कि इन राज्यों में भौम जल में कमी आ जाती है । गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, म.प्र., प.बंगाल, उ.प्र. आदि राज्यों में कुओं और नलकूपों से सिंचित क्षेत्र का भाग बहुत अधिक है। इन राज्यों में भौम जल संसाधन के अत्यधिक उपयोग से भौम जल स्तर नीचा हो गया है। वास्तव में, कुछ राज्यों, जैसे– राजस्थान और महाराष्ट्र में अधिक जल निकालने के कारण भूमिगत जल में फलुओराइड का संकेंद्रण बढ़ गया है और इस वजह से पश्चिम बंगाल और बिहार के कुछ भागों में संखिया के संकेंद्रण की वृद्धि हो गई है। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गहन सिंचाई से मृदा में लवणता बढ़ रही है और भौम जल सिंचाई में कमी आ रही है।

संभावित जल समस्या

जल की प्रति व्यक्ति उपलब्धिता, जनसंख्या बढ़ने से दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है। उपलब्ध जल संसाधन औद्योगिक, कॄषि और घरेलू निस्सरणों से प्रदूषित होता जा रहा है और इस कारण उपयोगी जल संसाधनों की उपलब्धिता और सीमित होती जा रही है।

जल के गुणों का ह्रास

जल गुणवत्ता से तात्पर्य जल की शुद्धता अथवा अनावश्यक बाहरी पदार्थों से रहित जल से है। जल बाईँ पदार्थों, जैसे– सूक्ष्म जीवों, रासायनिक पदार्थों, औद्योगिक और अन्य अपशिष्ट पदार्थों से प्रदूषित होता है। इस प्रकार के पदार्थ जल के गुणों में कमी लाते हैं और इसे मानव उपयोग के योग्य नहीं रहने देते हैं। जब विषैले पदार्थ झीलों, सरिताओं, नदियों, समुद्रों और अन्य  जलाशयों में प्रवेश करते हैं, वे जल में घुल जाते हैं अथवा जल में निलंबित हो जाते हैं। इससे जल प्रदूषण बढ़ता है और जल के गुणों में कमी आने से जलीय तंत्र (aquatic system)  प्रभावित होते हैं। कभी-कभी प्रदूषक नीचे तक पहुँच जाते हैं और भौम जल को प्रदूषित करते हैं। देश में गंगा और यमुना, दो अत्यधिक प्रदूषित नदियाँ हैं।

जल संरक्षण और प्रबंधन

अलवणीय जल की घटती हुई उपलब्धिता और बढ़ती माँग से, सतत पोषणीय विकास के लिए इस महत्वपूर्ण जीवनदायी संसाधन के संरक्षण और प्रबंधन की आवश्यकता बढ़ गई है।  विलवणीकरण द्वारा सागर/महासागर से प्राप्त जल उपलब्धिता, उसकी अधिक लागत के कारण, नगण्य हो गई है। भारत को जल-संरक्षण के लिए तुरंत कदम उठाने हैं और प्रभावशाली  नीतियाँ और कानून बनाने हैं, और जल संरक्षण हेतु प्रभावशाली उपाय अपनाने हैं। जल बचत तकनीकी और विधयों के विकास के अतिरिक्त, प्रदूषण से बचाव के प्रयास भी करने चाहिए। जल-संभर विकास, वर्षा जल संग्रहण, जल के पुन: चक्रण और पुन: उपयोग और लंबे समय तक जल की आपूर्ति के लिए जल के संयुक्त उपयोग को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है।

जल प्रदूषण का निवारण

उपलब्ध जल संसाधनों का तेजी से निम्नीकरण हो रहा है। देश की मुख्य नदियों के प्राय: पहाड़ी क्षेत्रों के उफपरी भागों तथा कम बसे क्षेत्रों में अच्छी जल गुणवत्ता पाई जाती है। मैदानों में,  नदी जल का उपयोग गहन रूप से कॄषि, पीने, घरेलू और औद्योगिक उद्देश्यों के लिए किया जाता है। अपवाहिकाओं के साथ कॄषिगत ;उर्वरक और कीटनाशक, घरेलू ;ठोस और अपशिष्ट पदार्थ और औद्योगिक बहि:स्राव नदी में मिल जाते हैं। नदियों में प्रदूषकों का संकेंद्रण गर्मी के मौसम में बहुत अधिक होता है क्योंकि उस समय जल का प्रवाह कम होता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण  बोर्ड सी-पी-सी-बी, राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ;एस-पी-सी- के साथ मिलकर 507 स्टेशनों की राष्ट्रीय जल संसाधन की गुणवत्ता का मानीटरन किया जा रहा है। इन स्टेशनों से प्राप्त किया गया आँकड़ा दर्शाता है कि जैव और जीवाणविक संदूषण नदियों में प्रदूषण का मुख्य स्रोत है। दिल्ली और इटावा के बीच यमुना नदी देश में सबसे अधिक प्रदूषित नदी है। दूसरी प्रदूषित नदियाँ अहमदाबाद में साबरमती, लखनउफ में गोमती, मदुरई में काली, अडयार, कूअम ;संपूर्ण विस्तारद्ध, वैगई, हैदराबाद में मूसी तथा कानपुर और वाराणसी में गंगा है। भौम जल प्रदूषण  देश के विभिन्न भागों में भारी/विषैली धातुओं, फ़्लूओराइड और नाइट्रेट्‌स के संकेंद्रण के कारण होता है।

वैधानिक व्यवस्थाएँ, जैसे– जल अधनियम 1974 ;प्रदूषण का निवारण और नियंत्रण और पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम 1986, प्रभावपूर्ण ढंग से कार्यान्वित नहीं हुए हैं। परिणाम यह है कि 1997 में प्रदूषण पैफलाने वाले 251 उद्योग, नदियों और झीलों के किनारे स्थापित किए गए थे। जल उपकर अधिनियम 1977, जिसका उद्देश्य प्रदूषण कम करना है, उसके भी सीमित प्रभाव हुए। जल के महत्व और जल प्रदूषण के अधिप्रभावों के बारे में जागरूकता का प्रसार करने की आवश्यकता है। जन जागरूकता और उनकी भागीदारी से, कॄषिगत कार्यो तथा घरेलू और औद्योगिक विसर्जन से प्राप्त प्रदूषकों में बहुत प्रभावशाली ढंग से कमी लाई जा सकती है।

जल का पुन: चक्र और पुन: उपयोग

पुन: चक्र और पुन: उपयोग, दूसरे रास्ते हैं जिनके द्वारा अलवणीय जल की उपलब्धिता को सुधारा जा सकता है। कम गुणवत्ता के जल का उपयोग, जैसे शोधित अपशिष्ट जल, उद्योगों के लिए एक आकर्षक विकल्प हैं और जिसका उपयोग शीतलन एवं अग्निशमन के लिए करके वे जल पर होने वाली लागत को कम कर सकते हैं। इसी तरह नगरीय क्षेत्रों में स्नान और बर्तन धोने में प्रयुक्त जल को बागवानी के लिए उपयोग में लाया जा सकता है। वाहनों को धोने के लिए प्रयुक्त जल का उपयोग भी बागवानी में किया जा सकता है। इससे अच्छी गुणवत्ता वाले जल का पीने के उद्देश्य के लिए संरक्षण होगा। वर्तमान में, पानी का पुन: चक्रण एक सीमित माप में किया गया है। फिर भी, पुन: चक्रण द्वारा पुन: पूर्तियोग्य जल की उपादेयता व्यापक है।

जल संभर प्रबंधन

जल संभर प्रबंधन से तात्पर्य, मुख्य रूप से, धरातलीय और भौम जल संसाधनों के दक्ष प्रबंधन से है। इसके अंतर्गत बहते जल को रोकना और विभिन्न विधयों, जैसे– अंत: स्रवण तालाब,  पुनर्भरण, कुओं आदि के द्वारा भौम जल का संचयन और पुनर्भरण शामिल हैं। तथापि, विस्तृत अर्थ में जल संभर प्रबंधन के अंतर्गत सभी संसाधनों– प्राकॄतिक ;जैसे– भूमि, जल, पौधे और प्राणियों और जल संभर सहित मानवीय संसाधनों के संरक्षण, पुनरुत्पादन और विवेकपूर्ण उपयोग को सम्मिलित किया जाता है। जल संभर प्रबंधन का उद्देश्य प्राकॄतिक संसाधनों और समाज के बीच संतुलन लाना है। जल-संभर व्यवस्था की सफलता मुख्य रूप से संप्रदाय के सहयोग पर निर्भर करती है।

केंद्रीय और राज्य सरकारों ने देश में बहुत से जल- संभर विकास और प्रबंधन कार्यक्रम चलाए हैं। इनमें से कुछ गैर सरकारी संगठनों द्वारा भी चलाए जा रहे हैं। ‘हरियाली’ केंद्र सरकार द्वारा प्रवर्तित जल-संभर विकास परियोजना है जिसका उद्देश्य ग्रामीण जनसंख्या को पीने, सिंचाई, मत्स्य पालन और वन रोपण के लिए जल संरक्षण के लिए योग्य बनाना है। परियोजना लोगों के सहयोग से ग्राम पंचायतों द्वारा निष्पादित की जा रही है। नीरू-मीरू ;जल और आप कार्यक्रम ;आंध्र प्रदेश में और अरवारी पानी संसद ;अलवर राजस्थान में के अंतर्गत लोगों के सहयोग से विभिन्न जल संग्रहण संरचनाएँ जैसे– अंत: स्रवण तालाब ताल जोहड़ की खुदाई की गई है और रोक बाँध बनाए गए हैं। तमिलनाडु में घरों में जल संग्रहण संरचना को बनाना आवश्यक कर दिया गया है।

किसी भी इमारत का निर्माण बिना जल संग्रहण संरचना बनाए नहीं किया जा सकता है। कुछ क्षेत्रों में जल-संभर विकास परियोजनाएँ पर्यावरण और अर्थव्यवस्था का कायाकल्प करने में सपफल हुई हैं। फिर भी सफलता कुछ की ही कहानियाँ हैं। अधिकांश घटनाओं में, कार्यक्रम  अपनी उदीयमान अवस्था पर ही हैं। देश में लोगों के बीच जल संभर विकास और प्रबंधन के लाभों को बताकर जागरूकता उत्पन्न करने की आवश्यकता है और इस एकीकॄत जल संसाधन प्रबंधन उपागम द्वारा जल उपलब्धिता सतत पोषणीय आधार पर निश्चित रूप से की जा सकती है।

वर्षा जल संग्रहण

वर्षा जल संग्रहण विभिन्न उपयोगों के लिए वर्षा के जल को रोकने और एकत्र करने की विध है। इसका उपयोग भूमिगत जलभृतों के पुनर्भरण के लिए भी किया जाता है। यह एक कम मूल्य और पारिस्थितिकी अनुकूल विध है जिसके द्वारा पानी की प्रत्येक बूँद संरक्षित करने के लिए वर्षा जल को नलकूपों, गड्‌ढों और कुओं में एकत्र किया जाता है। वर्षा जल संग्रहण पानी की उपलब्धिता को बढ़ाता है, भूमिगत जल स्तर को नीचा होने से रोकता है, फ़लुओराइड और नाइट्रेट्‌स जैसे संदूषकों को कम करके अवमिश्रण भूमिगत जल की गुणवत्ता बढ़ाता है, मृदा अपरदन और बाढ़ को रोकता है और यदि इसे जलभृतों के पुनर्भरण के लिए उपयोग किया जाता है तो तटीय क्षेत्रों में लवणीय जल के प्रवेश को रोकता है।

देश में विभिन्न समुदाय लंबे समय से अनेक विधियों से वर्षाजल संग्रहण करते आ रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में परंपरागत वर्षा जल संग्रहण सतह संचयन जलाशयों, जैसे– झीलों, तालाबों, सिंचाई तालाबों आदि में किया जाता है। राजस्थान में वर्षा जल संग्रहण ढाँचे जिन्हें कुंड अथवा टाँका ;एक ढका हुआ भूमिगत टंकी के नाम से जानी जाती है जिनका निर्माण घर अथवा गाँव के पास या घर में संग्रहित वर्षा जल को एकत्र करने के लिए किया जाता है। वर्षा जल संग्रहण के विभिन्न विधियों को समझने के लिए चित्र  देखिए।

चित्र

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बहुमूल्य जल संसाधन के संरक्षण के लिए वर्षा जल संग्रहण प्रविध का उपयोग करने का क्षेत्र व्यापक है। इसे घर की छतों और खुले स्थानों में वर्षा जल द्वारा संग्रहण किया जा सकता है। वर्षा जल संग्रहण घरेलू उपयोग के लिए, भूमिगत जल पर समुदाय की निर्भरता कम करता है। इसके अतिरिक्त माँग-आपूर्ति अंतर के लिए सेतु बंधन के कार्य के अतिरिक्त इससे भौम जल निकालने में ऊर्जा की बचत होती है क्योंकि पुनर्भरण से भौम जल स्तर में वृद्धि हो जाती है। आजकल वर्षा जल संग्रहण विधि का देश के बहुत से राज्यों में बड़े पैमाने पर उपयोग किया जा रहा है।

वर्षा जल संग्रहण से मुख्य रूप से नगरीय क्षेत्रों को लाभ मिल सकता है क्योंकि जल की माँग, अधिकांश नगरों और शहरों में पहले ही आपूर्ति से आगे बढ़ चुकी हैं। उपर्युक्त कारकों के अतिरिक्त विशेषकर तटीय क्षेत्रों में पानी के विलवणीकरण और शुष्क और अधर्शुष्क क्षेत्रों में खारे पानी की समस्या, नदियों को जोड़कर अधिक जल के क्षेत्रों से कम जल के क्षेत्रों में जल स्थानांतरित करके भारत में जल समस्या को सुलझाने का महत्वपूर्ण उपाय हैं। फिर भी, वैयक्तिक उपभोक्ता, घरेलू और समुदायों के दृष्टिकोण से, सबसे बड़ी समस्या जल का मूल्य है।

11 Responses to "भारत का जल संसाधन"

[…] साभार -भारतीय पक्ष […]

Thanks for the article Vijay jee.

बधाई, मिथिलेश जी। जल संसाधनों के बारे में आपने अत्यंत सरल और सटीक लेख प्रस्तुत किया है। भाषा की मौलिकता और रवानगी देखते ही बनती है। सचमुच इंटरनेट पर ऐसे लेखों की अत्यंत आवश्यकता है।

चन्द्रमोहन रावल

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Dr. M. K. Khandelwal, Principal Scientist
Central Soil Salinity Research Institute (ICAR), Regional Research Station, Maktampur, Bharuch 392012 (Gujarat)
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bahut jankari di apne kya ham iska upyog logo ko jagrook karne ko kar sakte hai

भारत का जल संसाधन

Posted by: संपादक- मिथिलेश वामनकर on: फ़रवरी 22, 2009

In: 1 | सामान्य अध्ययन
Comment!

क्या आप सोचते हैं कि जो कुछ वर्तमान में है, ऐसा ही रहेगा या भविष्य कुछ पक्षों में अलग होने जा रहा है? कुछ निश्चितता के साथ यह कहा जा सकता है कि समाज जनांकिकीय परिवर्तन, जनसंख्या का भौगोलिक स्थानांतरण, प्रौद्योगिक उन्नति, पर्यावरणीय निम्नीकरण, और जल अभाव का साक्षी होगा। जल अभाव संभवत: इसकी बढ़ती हुई माँग, अति उपयोग तथा प्रदूषण के कारण घटती आपूर्ति के आधार पर सबसे बड़ी चुनौती है। जल एक चक्रीय संसाधन है जो पृथ्वी पर प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। पृथ्वी का लगभग 71 प्रतिशत धरातल पानी से आच्छादित है परंतु अलवणीय जल कुल जल का केवल लगभग 3 प्रतिशत ही है। वास्तव में अलवणीय जल का एक बहुत छोटा भाग ही मानव उपयोग के लिए उपलब्ध है। अलवणीय जल की उपलब्धिता स्थान और समय के अनुसार भिन्न-भिन्न है। इस दुर्लभ संसाधन के आवंटन और नियंत्रण पर तनाव और लड़ाई झगड़े, संप्रदायों, प्रदेशों और राज्यों के बीच विवाद का विषय बन गए हैं। विकास को सुनिश्चित करने के लिए जल का मूल्यांकन, कार्यक्षम उपयोग और संरक्षण आवश्यक हो गए हैं। इस आलेख में हम भारत में जल संसाधनों, इसके भौगोलिक वितरण, क्षेत्रीय उपयोग और इसके संरक्षण और प्रबंधन की विधियों पर चर्चा करेंगे।

भारत का जल संसाधन

भारत में विश्व के धरातलीय क्षेत्र का लगभग 2.45 प्रतिशत, जल संसाधनों का 4 प्रतिशत, जनसंख्या का लगभग 16 प्रतिशत भाग पाया जाता है। देश में एक वर्ष में वर्षण से प्राप्त कुल जल की मात्रा लगभग 4,000 घन कि-मी- है। धरातलीय जल और पुन: पूर्तियोग भौम जल से 1,869 घन कि-मी- जल उपलब्ध है। इसमें से केवल 60 प्रतिशत जल का लाभदायक उपयोग किया जा सकता है। इस प्रकार देश में कुल उपयोगी जल संसाधन 1,122 घन कि-मी- है।

धरातलीय जल संसाधन

धरातलीय जल के चार मुख्य स्रोत हैं — नदियाँ, झीलें, तलैया और तालाब। देश में कुल नदियों तथा उन सहायक नदियों, जिनकी लंबाई 1-6 कि-मी- से अधिक है, को मिलाकर 10,360 नदियाँ हैं। भारत में सभी नदी बेसिनों में औसत वार्षिक प्रवाह 1,869 घन कि-मी- होने का अनुमान किया गया है। फिर भी स्थलाकॄतिक, जलीय और अन्य दबावों के कारण प्राप्त धरातलीय जल का केवल लगभग 690 घन किमी- ;32÷ जल का ही उपयोग किया जा सकता है। नदी में जल प्रवाह इसके जल ग्रहण क्षेत्र के आकार अथवा नदी बेसिन और इस जल ग्रहण क्षेत्र में हुई वर्षा पर निर्भर करता है।

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आप जानते हैं कि भारत में वर्षा में अत्यधिक स्थानिक विभिन्नता पाई जाती है और वर्षा मुख्य रूप से मानसूनी मौसम संकेद्रित है। भारत में कुछ नदियाँ, जैसे– गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु के जल ग्रहण क्षेत्र बहुत बड़े हैं। गंगा, ब्रह्मपुत्र और बराक नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में वर्षा अपेक्षाकॄत अधिक होती है। ये नदियाँ यद्यपि देश के कुल क्षेत्र के लगभग एक-तिहाई भाग पर पाई जाती हैं जिनमें कुल धरातलीय जल संसाधनों का 60 प्रतिशत जल पाया जाता है। दक्षिणी भारतीय नदियों, जैसे– गोदावरी, कॄष्णा और कावेरी में वार्षिक जल प्रवाह का अधिकतर भाग काम में लाया जाता है लेकिन ऐसा ब्रह्मपुत्र और गंगा बेसिनों में अभी भी संभव नहीं हो सका है।

भौम जल संसाधन

देश में, कुल पुन: पूर्तियोग्य भौम जल संसाधन लगभग 432 घन कि-मी- है। तालिका 6-1 दर्शाती है कि कुल पुन: पूर्तियोग्य भौम जल संसाधन का लगभग 46 प्रतिशत गंगा और ब्रह्मपुत्र बेसिनों में पाया जाता है। उत्तर-पश्चिमी प्रदेश और दक्षिणी भारत के कुछ भागों के नदी बेसिनों में भौम जल उपयोग अपेक्षाकॄत अधिक है। देश में राज्यवार संभावित भौम जल के उपयोग को चित्र में दर्शाया गया है। पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और तमिलनाडु राज्यों में भौम जल का उपयोग बहुत अधिक है। परंतु कुछ राज्य जैसे छत्तीसगढ़, उड़ीसा, केरल आदि अपने भौम जल क्षमता का बहुत कम उपयोग करते हैं। गुजरात, उत्तर प्रदेश, बिहार, त्रिपुरा और महाराष्ट्र अपने भौम जल संसाधनों का मध्यम दर से उपयोग कर रहे हैं। यदि वर्तमान प्रवृत्त जारी रहती है तो जल के माँग की आपूर्ति करने की आवश्यकता होगी। ऐसी स्थिति विकास के लिए हानिकारक होगी और सामाजिक उथल-पुथल और विघटन का कारण हो सकती है।

लैगून और पश्च जल

भारत की समुद्र तट रेखा विशाल है और कुछ राज्यों में समुद्र तट बहुत दंतुरित (indented) है। इसी कारण बहुत-सी लैगून और झीलें बन गई हैं। केरल, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल में इन लैगूनों और झीलों में बड़े धरातलीय जल संसाधन हैं। यद्यपि, सामान्यत: इन जलाशयों में खारा जल है, इसका उपयोग मछली पालन और चावल की कुछ निश्चित किस्मों, नारियल आदि की सिंचाई में किया जाता है।

जल की माँग और उपयोग

पारंपरिक रूप से भारत एक कॄषि प्रधान अर्थव्यवस्था है और इसकी जनसंख्या का लगभग दो-तिहाई भाग कॄषि पर निर्भर है। इसीलिए, पंचवर्षीय योजनाओं में, कॄषि उत्पादन को बढ़ाने के लिए सिंचाई के विकास को एक अति उच्च प्राथमिकता प्रदान की गई है और बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजनाएँ जैसे– भाखड़ा नांगल, हीराकुड, दामोदर घाटी, नागार्जुन सागर, इंदिरा गांधी नहर परियोजना आदि शुरू की गई हैं। वास्तव में, भारत की वर्तमान में जल की माँग, सिंचाई की आवश्यकताओं के लिए अधिक है। धरातलीय और भौम जल का सबसे अधिक उपयोग कॄषि में होता है। इसमें धरातलीय जल का 89 प्रतिशत और भौम जल का 92 प्रतिशत जल उपयोग किया जाता है। जबकि औद्योगिक सेक्टर में, सतह जल का केवल 2 प्रतिशत और भौम जल का 5 प्रतिशत भाग ही उपयोग में लाया जाता है। घरेलू सेक्टर में धरातलीय जल का उपयोग भौम जल की तुलना में अधिक है। कुल जल उपयोग में कॄषि सेक्टर का भाग दूसरे सेक्टरों से अधिक है। फिर भी, भविष्य में विकास के साथ-साथ देश में औद्योगिक और घरेलू सेक्टरों में जल का उपयोग बढ़ने की संभावना है।

सिंचाई के लिए जल की माँग

कॄषि में, जल का उपयोग मुख्य रूप से सिंचाई के लिए होता है। देश में वर्षा के स्थानिक-सामयिक परिवर्तिता के कारण सिंचाई की आवश्यकता होती है। देश के अधिकांश भाग वर्षाविहीन और सूखाग्रस्त हैं। उत्तर-पश्चिमी भारत और दक्कन का पठार इसके अंतर्गत आते हैं। देश के अधिकांश भागों में शीत और ग्रीष्म ऋतुओं में न्यूनाधिक शुष्कता पाई जाती है इसलिए शुष्क ऋतुओं में बिना सिंचाई के खेती करना कठिन होता है। पर्याप्त मात्रा में वर्षा वाले क्षेत्र जैसे पश्चिम बंगाल और बिहार में भी मानसून के मौसम में अवर्षा अथवा इसकी असपफलता सूखा जैसी स्थिति उत्पन्न कर देती है जो कॄषि के लिए हानिकारक होती है। कुछ फसलों के लिए जल की कमी सिंचाई को आवश्यक बनाती है। उदाहरण के लिए चावल, गन्ना, जूट आदि के लिए अत्यधिक जल की आवश्यकता होती है जो केवल सिंचाई द्वारा संभव है। सिंचाई की व्यवस्था बहुफसलीकरण को संभव बनाती है। ऐसा पाया गया है कि सिंचित भूमि की कॄषि उत्पादकता असिंचित भूमि की अपेक्षा ज्यादा होती है। दूसरे, फसलों की अधिक उपज देने वाली किस्मों के लिए आर्द्रता आपूर्ति नियमित रूप से आवश्यक है जो केवल विकसित सिंचाई तंत्र से ही संभव होती है। वास्तव में ऐसा इसलिए है कि देश में कॄषि विकास की हरित क्रांति की रणनीति पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अधिक सपफल हुई है।

पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में निवल बोए गए क्षेत्र का 85 प्रतिशत भाग सिंचाई के अंतर्गत है। इन राज्यों में गेहूँ और चावल मुख्य रूप से सिंचाई की सहायता से पैदा किए जाते हैं। निवल सिंचित क्षेत्र का 76-1 प्रतिशत पंजाब में और 51-3 प्रतिशत हरियाणा में, कुओं और नलकूपों द्वारा सिंचित है। इससे यह ज्ञात होता है कि ये राज्य अपने संभावित भौम जल के एक बड़े भाग का उपयोग करते हैं जिससे कि इन राज्यों में भौम जल में कमी आ जाती है । गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, म.प्र., प.बंगाल, उ.प्र. आदि राज्यों में कुओं और नलकूपों से सिंचित क्षेत्र का भाग बहुत अधिक है। इन राज्यों में भौम जल संसाधन के अत्यधिक उपयोग से भौम जल स्तर नीचा हो गया है। वास्तव में, कुछ राज्यों, जैसे– राजस्थान और महाराष्ट्र में अधिक जल निकालने के कारण भूमिगत जल में फलुओराइड का संकेंद्रण बढ़ गया है और इस वजह से पश्चिम बंगाल और बिहार के कुछ भागों में संखिया के संकेंद्रण की वृद्धि हो गई है। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गहन सिंचाई से मृदा में लवणता बढ़ रही है और भौम जल सिंचाई में कमी आ रही है।

संभावित जल समस्या

जल की प्रति व्यक्ति उपलब्धिता, जनसंख्या बढ़ने से दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है। उपलब्ध जल संसाधन औद्योगिक, कॄषि और घरेलू निस्सरणों से प्रदूषित होता जा रहा है और इस कारण उपयोगी जल संसाधनों की उपलब्धिता और सीमित होती जा रही है।

जल के गुणों का ह्रास

जल गुणवत्ता से तात्पर्य जल की शुद्धता अथवा अनावश्यक बाहरी पदार्थों से रहित जल से है। जल बाईँ पदार्थों, जैसे– सूक्ष्म जीवों, रासायनिक पदार्थों, औद्योगिक और अन्य अपशिष्ट पदार्थों से प्रदूषित होता है। इस प्रकार के पदार्थ जल के गुणों में कमी लाते हैं और इसे मानव उपयोग के योग्य नहीं रहने देते हैं। जब विषैले पदार्थ झीलों, सरिताओं, नदियों, समुद्रों और अन्य जलाशयों में प्रवेश करते हैं, वे जल में घुल जाते हैं अथवा जल में निलंबित हो जाते हैं। इससे जल प्रदूषण बढ़ता है और जल के गुणों में कमी आने से जलीय तंत्र (aquatic system) प्रभावित होते हैं। कभी-कभी प्रदूषक नीचे तक पहुँच जाते हैं और भौम जल को प्रदूषित करते हैं। देश में गंगा और यमुना, दो अत्यधिक प्रदूषित नदियाँ हैं।

जल संरक्षण और प्रबंधन

अलवणीय जल की घटती हुई उपलब्धिता और बढ़ती माँग से, सतत पोषणीय विकास के लिए इस महत्वपूर्ण जीवनदायी संसाधन के संरक्षण और प्रबंधन की आवश्यकता बढ़ गई है। विलवणीकरण द्वारा सागर/महासागर से प्राप्त जल उपलब्धिता, उसकी अधिक लागत के कारण, नगण्य हो गई है। भारत को जल-संरक्षण के लिए तुरंत कदम उठाने हैं और प्रभावशाली नीतियाँ और कानून बनाने हैं, और जल संरक्षण हेतु प्रभावशाली उपाय अपनाने हैं। जल बचत तकनीकी और विधयों के विकास के अतिरिक्त, प्रदूषण से बचाव के प्रयास भी करने चाहिए। जल-संभर विकास, वर्षा जल संग्रहण, जल के पुन: चक्रण और पुन: उपयोग और लंबे समय तक जल की आपूर्ति के लिए जल के संयुक्त उपयोग को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है।

जल प्रदूषण का निवारण

उपलब्ध जल संसाधनों का तेजी से निम्नीकरण हो रहा है। देश की मुख्य नदियों के प्राय: पहाड़ी क्षेत्रों के उफपरी भागों तथा कम बसे क्षेत्रों में अच्छी जल गुणवत्ता पाई जाती है। मैदानों में, नदी जल का उपयोग गहन रूप से कॄषि, पीने, घरेलू और औद्योगिक उद्देश्यों के लिए किया जाता है। अपवाहिकाओं के साथ कॄषिगत ;उर्वरक और कीटनाशक, घरेलू ;ठोस और अपशिष्ट पदार्थ और औद्योगिक बहि:स्राव नदी में मिल जाते हैं। नदियों में प्रदूषकों का संकेंद्रण गर्मी के मौसम में बहुत अधिक होता है क्योंकि उस समय जल का प्रवाह कम होता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड सी-पी-सी-बी, राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ;एस-पी-सी- के साथ मिलकर 507 स्टेशनों की राष्ट्रीय जल संसाधन की गुणवत्ता का मानीटरन किया जा रहा है। इन स्टेशनों से प्राप्त किया गया आँकड़ा दर्शाता है कि जैव और जीवाणविक संदूषण नदियों में प्रदूषण का मुख्य स्रोत है। दिल्ली और इटावा के बीच यमुना नदी देश में सबसे अधिक प्रदूषित नदी है। दूसरी प्रदूषित नदियाँ अहमदाबाद में साबरमती, लखनउफ में गोमती, मदुरई में काली, अडयार, कूअम ;संपूर्ण विस्तारद्ध, वैगई, हैदराबाद में मूसी तथा कानपुर और वाराणसी में गंगा है। भौम जल प्रदूषण देश के विभिन्न भागों में भारी/विषैली धातुओं, फ़्लूओराइड और नाइट्रेट्‌स के संकेंद्रण के कारण होता है।

वैधानिक व्यवस्थाएँ, जैसे– जल अधनियम 1974 ;प्रदूषण का निवारण और नियंत्रण और पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम 1986, प्रभावपूर्ण ढंग से कार्यान्वित नहीं हुए हैं। परिणाम यह है कि 1997 में प्रदूषण पैफलाने वाले 251 उद्योग, नदियों और झीलों के किनारे स्थापित किए गए थे। जल उपकर अधिनियम 1977, जिसका उद्देश्य प्रदूषण कम करना है, उसके भी सीमित प्रभाव हुए। जल के महत्व और जल प्रदूषण के अधिप्रभावों के बारे में जागरूकता का प्रसार करने की आवश्यकता है। जन जागरूकता और उनकी भागीदारी से, कॄषिगत कार्यो तथा घरेलू और औद्योगिक विसर्जन से प्राप्त प्रदूषकों में बहुत प्रभावशाली ढंग से कमी लाई जा सकती है।

जल का पुन: चक्र और पुन: उपयोग

पुन: चक्र और पुन: उपयोग, दूसरे रास्ते हैं जिनके द्वारा अलवणीय जल की उपलब्धिता को सुधारा जा सकता है। कम गुणवत्ता के जल का उपयोग, जैसे शोधित अपशिष्ट जल, उद्योगों के लिए एक आकर्षक विकल्प हैं और जिसका उपयोग शीतलन एवं अग्निशमन के लिए करके वे जल पर होने वाली लागत को कम कर सकते हैं। इसी तरह नगरीय क्षेत्रों में स्नान और बर्तन धोने में प्रयुक्त जल को बागवानी के लिए उपयोग में लाया जा सकता है। वाहनों को धोने के लिए प्रयुक्त जल का उपयोग भी बागवानी में किया जा सकता है। इससे अच्छी गुणवत्ता वाले जल का पीने के उद्देश्य के लिए संरक्षण होगा। वर्तमान में, पानी का पुन: चक्रण एक सीमित माप में किया गया है। फिर भी, पुन: चक्रण द्वारा पुन: पूर्तियोग्य जल की उपादेयता व्यापक है।

जल संभर प्रबंधन

जल संभर प्रबंधन से तात्पर्य, मुख्य रूप से, धरातलीय और भौम जल संसाधनों के दक्ष प्रबंधन से है। इसके अंतर्गत बहते जल को रोकना और विभिन्न विधयों, जैसे– अंत: स्रवण तालाब, पुनर्भरण, कुओं आदि के द्वारा भौम जल का संचयन और पुनर्भरण शामिल हैं। तथापि, विस्तृत अर्थ में जल संभर प्रबंधन के अंतर्गत सभी संसाधनों– प्राकॄतिक ;जैसे– भूमि, जल, पौधे और प्राणियों और जल संभर सहित मानवीय संसाधनों के संरक्षण, पुनरुत्पादन और विवेकपूर्ण उपयोग को सम्मिलित किया जाता है। जल संभर प्रबंधन का उद्देश्य प्राकॄतिक संसाधनों और समाज के बीच संतुलन लाना है। जल-संभर व्यवस्था की सफलता मुख्य रूप से संप्रदाय के सहयोग पर निर्भर करती है।

केंद्रीय और राज्य सरकारों ने देश में बहुत से जल- संभर विकास और प्रबंधन कार्यक्रम चलाए हैं। इनमें से कुछ गैर सरकारी संगठनों द्वारा भी चलाए जा रहे हैं। ‘हरियाली’ केंद्र सरकार द्वारा प्रवर्तित जल-संभर विकास परियोजना है जिसका उद्देश्य ग्रामीण जनसंख्या को पीने, सिंचाई, मत्स्य पालन और वन रोपण के लिए जल संरक्षण के लिए योग्य बनाना है। परियोजना लोगों के सहयोग से ग्राम पंचायतों द्वारा निष्पादित की जा रही है। नीरू-मीरू ;जल और आप कार्यक्रम ;आंध्र प्रदेश में और अरवारी पानी संसद ;अलवर राजस्थान में के अंतर्गत लोगों के सहयोग से विभिन्न जल संग्रहण संरचनाएँ जैसे– अंत: स्रवण तालाब ताल जोहड़ की खुदाई की गई है और रोक बाँध बनाए गए हैं। तमिलनाडु में घरों में जल संग्रहण संरचना को बनाना आवश्यक कर दिया गया है।

किसी भी इमारत का निर्माण बिना जल संग्रहण संरचना बनाए नहीं किया जा सकता है। कुछ क्षेत्रों में जल-संभर विकास परियोजनाएँ पर्यावरण और अर्थव्यवस्था का कायाकल्प करने में सपफल हुई हैं। फिर भी सफलता कुछ की ही कहानियाँ हैं। अधिकांश घटनाओं में, कार्यक्रम अपनी उदीयमान अवस्था पर ही हैं। देश में लोगों के बीच जल संभर विकास और प्रबंधन के लाभों को बताकर जागरूकता उत्पन्न करने की आवश्यकता है और इस एकीकॄत जल संसाधन प्रबंधन उपागम द्वारा जल उपलब्धिता सतत पोषणीय आधार पर निश्चित रूप से की जा सकती है।

वर्षा जल संग्रहण

वर्षा जल संग्रहण विभिन्न उपयोगों के लिए वर्षा के जल को रोकने और एकत्र करने की विध है। इसका उपयोग भूमिगत जलभृतों के पुनर्भरण के लिए भी किया जाता है। यह एक कम मूल्य और पारिस्थितिकी अनुकूल विध है जिसके द्वारा पानी की प्रत्येक बूँद संरक्षित करने के लिए वर्षा जल को नलकूपों, गड्‌ढों और कुओं में एकत्र किया जाता है। वर्षा जल संग्रहण पानी की उपलब्धिता को बढ़ाता है, भूमिगत जल स्तर को नीचा होने से रोकता है, फ़लुओराइड और नाइट्रेट्‌स जैसे संदूषकों को कम करके अवमिश्रण भूमिगत जल की गुणवत्ता बढ़ाता है, मृदा अपरदन और बाढ़ को रोकता है और यदि इसे जलभृतों के पुनर्भरण के लिए उपयोग किया जाता है तो तटीय क्षेत्रों में लवणीय जल के प्रवेश को रोकता है।

देश में विभिन्न समुदाय लंबे समय से अनेक विधियों से वर्षाजल संग्रहण करते आ रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में परंपरागत वर्षा जल संग्रहण सतह संचयन जलाशयों, जैसे– झीलों, तालाबों, सिंचाई तालाबों आदि में किया जाता है। राजस्थान में वर्षा जल संग्रहण ढाँचे जिन्हें कुंड अथवा टाँका ;एक ढका हुआ भूमिगत टंकी के नाम से जानी जाती है जिनका निर्माण घर अथवा गाँव के पास या घर में संग्रहित वर्षा जल को एकत्र करने के लिए किया जाता है। वर्षा जल संग्रहण के विभिन्न विधियों को समझने के लिए चित्र देखिए।

चित्र

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बहुमूल्य जल संसाधन के संरक्षण के लिए वर्षा जल संग्रहण प्रविध का उपयोग करने का क्षेत्र व्यापक है। इसे घर की छतों और खुले स्थानों में वर्षा जल द्वारा संग्रहण किया जा सकता है। वर्षा जल संग्रहण घरेलू उपयोग के लिए, भूमिगत जल पर समुदाय की निर्भरता कम करता है। इसके अतिरिक्त माँग-आपूर्ति अंतर के लिए सेतु बंधन के कार्य के अतिरिक्त इससे भौम जल निकालने में ऊर्जा की बचत होती है क्योंकि पुनर्भरण से भौम जल स्तर में वृद्धि हो जाती है। आजकल वर्षा जल संग्रहण विधि का देश के बहुत से राज्यों में बड़े पैमाने पर उपयोग किया जा रहा है।

वर्षा जल संग्रहण से मुख्य रूप से नगरीय क्षेत्रों को लाभ मिल सकता है क्योंकि जल की माँग, अधिकांश नगरों और शहरों में पहले ही आपूर्ति से आगे बढ़ चुकी हैं। उपर्युक्त कारकों के अतिरिक्त विशेषकर तटीय क्षेत्रों में पानी के विलवणीकरण और शुष्क और अधर्शुष्क क्षेत्रों में खारे पानी की समस्या, नदियों को जोड़कर अधिक जल के क्षेत्रों से कम जल के क्षेत्रों में जल स्थानांतरित करके भारत में जल समस्या को सुलझाने का महत्वपूर्ण उपाय हैं। फिर भी, वैयक्तिक उपभोक्ता, घरेलू और समुदायों के दृष्टिकोण से, सबसे बड़ी समस्या जल का मूल्य है।

जल संरक्षण
जल संरक्षण का अर्थ है जल के प्रयोग को घटाना एवं सफाई, निर्माण एवं कृषि आदि के लिए अवशिष्ट जल की रिसाइक्लिंग करना.
• [[धीमी गति के शावर हेड्स(कम पानी गरम होने के कारण कम ऊर्जा का प्रयोग होता है और इसीलिए इसे कभी-कभी ऊर्जा-कुशल शावर भी कहा जाता है).|धीमी गति के शावर हेड्स(कम पानी गरम होने के कारण कम ऊर्जा का प्रयोग होता है और इसीलिए इसे कभी-कभी ऊर्जा-कुशल शावर भी कहा जाता है).[citation needed]]]
• धीमा फ्लश शौचालय एवं खाद शौचालय. चूंकि पारंपरिक पश्चिमी शौचालयों में जल की बड़ी मात्रा खर्च होती है,इसलिए इनका विकसित दुनिया में नाटकीय असर पड़ता है.
• शौचालय में पानी डालने के लिए खारे पानी (समुद्री पानी) या बरसाती पानी का इस्तेमाल किया जा सकता है.
• फॉसेट एरेटर्स, जो कम पानी इस्तेमाल करते वक़्त ‘गीलेपन का प्रभाव’ बनाये रखने के लिए जल के प्रवाह को छोटे-छोटे कणों में तोड़ देता है. इसका एक अतिरिक्त फायदा यह है कि इसमें हाथ या बर्तन धोते वक़्त पड़ने वाले छींटे कम हो जाते हैं.
• नली बंद नलिका, जो इस्तेमाल हो जाने के बाद जल प्रवाह को होते रहने देने के बजाय बंद कर देता है.
• जल को देशीय वृक्ष-रोपण कर तथा आदतों में बदलाव लाकर भी संचित किया जा सकता है, मसलन- झरनों को छोटा करना तथा ब्रश करते वक़्त पानी का नल खुला न छोड़ना आदि.

Aapko mai thanks kahana chahunga qnki hum jaise Students ko aaisi jankari nahi milpati jo aap hame de rahe hon

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